परिवार क्यू टूट रहे हैं
भौतिकवादी युग में एक-दूसरे की सुख-सुविधाओं की प्रतिस्पर्धा ने मन के रिश्तों को झुलसा दिया है। कच्चे से पक्के होते घरों की ऊंची दीवारों ने आपसी वार्तालाप को लुप्त कर दिया है। पत्थर होते हर आंगन में फूट-कलह का नंगा नाच हो रहा है। आपसी मतभेदों ने गहरे मन भेद कर दिए हैं। बड़े-बुजुर्गों की अच्छी शिक्षाओं के अभाव में घरों में छोटे रिश्तों को ताक पर रखकर निर्णय लेने लगे हैं। फलस्वरूप आज परिजन ही अपनों को काटने पर तुले हैं। एक तरफ सुख में पड़ोसी हलवा चाट रहें है तो दुःख अकेले भोगने पड़ रहें है। हमें ये सोचना-समझना होगा कि अगर हम सार्थक जीवन जीना चाहते हैं तो हमें परिवार की महत्ता समझनी होगी और आपसी तकरारों को छोड़कर परिवार के साथ खड़ा होना होगा तभी हम बच पाएंगे और ये समाज रहने लायक होगा। A memorable Family👪 " टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव! प्रेम जताते गैर से, अपनों से अलगाव !! गलती है ये खून की, या संस्कारी भूल ! अपने कांटों से लगे, और पराये फूल !!" परिवार, भारतीय समाज में, अपने आप में एक संस्था है और प्राचीन काल से ही भारत की सामूहिक संस्कृति का एक विशिष्ट प्रतीक है। संयुक्त